भारतीय परम्परा में विक्रम संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य प्राचीन काल से ही सर्वज्ञात हैं। विक्रमादित्य सम्बन्धी प्राचीन साहित्य और लोकपरंपराएँ तो प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती रहीं और उनके पुराप्रमाण भी मिलते रहे हैं। विक्रम संवत् वाले शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के आदि के साथ ही हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकें भी प्रचुर मात्रा में सैकड़ों वर्षों से प्राप्त हो रही हैं। संवत् 282 से इसे कृत संवत्, संवत् 461 से इसे मालव संवत् तथा संवत् 794 से विक्रम संवत् के कम से कम आठवीं सदी से इसके प्रमाण मिलते हैं। अभिलेख में सर्व प्राचीन उल्लेख गुजरात से संवत् 794 (विक्रमसंवत्सर शतेषु सप्तसु चतुर्नवत्यधिकेष्वंकतः) तथा कुछ के अनुसार धौलपुर (राजस्थान) 898 (वसुनवाष्टौ वर्षागतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य) प्राप्त होते हैं। इसके बाद तो इनका उपयोग ताम्रपत्रों, शिलालेखों, पाण्डुलिपियों, ग्रन्थों, दस्तावेजों, विदेशी यात्रियों, ज्योतिष ग्रन्थों आदि में भारतीय उपमहाद्वीप में निरन्तर होता रहा। नेपाल में तो यह राष्ट्रीय संवत् के रूप न केवल मान्य है अपितु जन-जन के दैनिक व्यवहार में भी आता रहता है। भारत में इसी संवत् के अनुसार बहुधा आम जन तिथि-त्योहारों का पालन करते हैं।
साहित्य, शिलालेखों तथा मुद्राओं से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में विक्रमादित्य या विक्रम नाम या उपाधिधारी अनेक राजा समय-समय पर हुए। परन्तु यह भी प्रतीत हुआ कि ये नाम तथा उपाधियाँ जिस विक्रमादित्य नाम के अनुकरण पर रखी गयीं वह मूल कोई एक आदर्श संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य रहा। उन्होंने ही 2069 वर्ष पहले विक्रम संवत् का प्रवर्तन किया। साहित्य और परम्परानुसार वह उदात्त मानवीय गुणों से सम्पन्न थे। अतः उस युग के पुराप्रमाण उससे ही सम्बन्धित हो सकते हैं, अन्य से नहीं। यह संयोग है कि अब ऐसे प्रमाण क्रमशः प्रकाश में आते जा रहे हैं।