वररूचि

 

वररुचि विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। पाणिनि के बाद, कालिदास पूर्व महाकाव्य-परम्परा में लिखने वाले वररुचि का नाम लिया जाता है। वररुचि ने पत्रकौमुदी नामक काव्य की रचना की। पत्रकौमुदी काव्य के आरंभ में उन्होंने लिखा है कि विक्रमादित्य के आदेश से ही वररुचि ने पत्रकौमुदी काव्य की रचना की। इन्होंने विद्यासुंदर नामक एक अन्य काव्य भी लिखा। इसकी रचना भी उन्होंने विक्रमादित्य के आदेश से की थी। प्रबंध चिंतामणि में वररुचि को विक्रमादित्य की पुत्री का गुरु कहा गया है। वररुचि को विक्रमादित्य के धर्माधिकारी पुरोहित भी माना जाता है। वे व्याकरण के ज्ञाता थे। उनकी विलक्षणता अन्य विद्वानों के द्वारा प्रतिपादित है। काव्यमीमांसा के अनुसार वररुचि ने पाटलिपुत्र में शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी। कथासरित्सागर के अनुसार वररुचि का दूसरा नाम कात्यायन था। इनका जन्म कौशाम्बी के ब्राह्मण कुल में हुआ था। जब ये पाँच वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। ये आरंभ से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे। एक बार सुनी बात ये उसी समय ज्यों-की-त्यों कह देते थे। एक समय व्याडि और इन्द्रदत्त नामक विद्वान इनके यहाँ आये। व्याडि ने प्रातिशाख्य का पाठ किया। इन्होंने इसे वैसे का वैसा ही दुहरा दिया। वैयाकरण व्याडि इनसे बहुत प्रभावित हुए और इन्हें पाटलिपुत्र ले गए। वहाँ इन्होंने शिक्षा प्राप्त की तथा शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की।

          संस्कृत वाङ्मय के इतिहास में वररुचि के नाम से कई ग्रन्थों के नाम मिलते हैं और कुछ सूक्ति-संग्रहों, जैसे- सुभाषितावली, शार्ङगधरपद्धति और सदुक्तिकर्णामृत आदि में भी अनेक पद्यों के रचयिता के रूप में उद्धृत हैं। पाणिनीय व्याकरण पर वार्तिक लिखने वाले कत्यायन को तथा प्राकृत-प्रकाश नाम के प्राकृत-व्याकरण के रचयिता को भी वररुचि नाम से जाना जाता है। यहाँ तक, पालि भाषा का कच्चायन व्याकरण भी कात्यायन द्वारा निर्मित होने से वररुचि से जुड़ जाता है। तारानाथ ने अपने भारत में बौद्ध धर्म का इतिहास में 'ब्राह्मण-वररुचि' या आचार्य-वररुचि को उद्धृत किया है। कथासरित्‍सागर (कहानियों की धाराओं का सागर) भारतीय किंवदंतियों, परियों की कहानियों और लोक कथाओं का एक प्रसिद्ध 11 वीं शताब्दी का संग्रह है। कहानियों के इस महान संग्रह के पहले चार अध्यायों में वररुचि की कहानी को बहुत विस्तार से उल्लेखित किया गया है। प्राचीन भारत में, व्याकरण सभी विज्ञानों में सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण था। जब किसी ने पहली बार व्याकरण का अध्ययन किया था, तो वह किसी अन्य विज्ञान को सीखने के लिए जा सकता था। आचार्य वररुचि प्राचीन व्याकरण के एक महत्वपूर्ण स्तंभ माने जाते हैं।