वेतालभट्ट

 

विक्रमादित्य के प्रायः सभी विद्वान न केवल विद्वान हैं वरन् अपने-अपने पृथक-पृथक क्षेत्रों के विशेषज्ञ भी हैं। लगभग सभी विद्वान काव्यत्व एवं व्याकरण का प्रचुर ज्ञान तो रखते हैं किन्तु अपने क्षेत्रों में दिग्गज भी हैं। ज्योतिष, चिकित्सा, काव्य-नाट्य शास्त्र एवं न्याय तथा शिक्षा इन सभी क्षेत्रों में ये सिद्ध हस्थ थे। एक नवरत्न ऐसे भी थे जो सर्वथा नवीन क्षेत्र के विशेषज्ञ थे। वे थे बेतालभट्ट। विद्वानों का मानना है कि ये भट्ट परंपरा के विद्वान ब्राह्मण पंडित तो थे ही साथ ही तंत्र विद्या के भी जानकार थे। यही कारण है कि वीर किन्तु अंशतः इन विद्याओं पर विश्वास करने वाले सम्राट विक्रमादित्य ने इन्हें नवरत्नों में स्थान दिया।

प्राचीन काल में 'भट्ट' या 'भट्टारक' पंडितों की भी एक बड़ी उपाधि हुआ करती थी। संभव है यह भी एक बड़े पंडित हों। संभव यह भी है कि ये बेताल कश्मीर के भट्ट परिवार से सम्बन्धित हों।

उज्जैन में पहले बेतालों का वर्चस्व था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (1/6) से ज्ञात होता है कि भृगुओं को परेशान करने से कारण तालजंघ बेताल नष्ट हुआ। हरिवंशपुराण (13/31) के अनुसर हैहय तथा तालजंघों ने अधार्मिक आचरण के कारण अपने एक राजा को देश से बाहर निकाल दिया था। कथा-सरित्सागर के अनुसार उज्जैन के श्मशान पर तालजंघ नामक भूतपति बेताल का अधिकार था। बाणभट्ट हर्षचरित के अनुसार महाकाल उत्सव में तालजंघ नामक बेताल ने प्रद्योत के एक पुत्र राजकुमार कुमारसेन की हत्या कर दी थी।

विक्रमादित्य के समकालीन बेताल का नाम अग्नि था। मालवा में लोक मालवी भाषा में उग्र हो जाने के लिये 'आग्या वितार' (अग्निबेताल) मुहावरे का प्रयोग अग्नि बोतल की उग्र छवि की ओर संकेत करता है। यह अग्निबेताल विक्रमादित्य के परम सहयोगी हो गये थे। विक्रमादित्य के नौ रत्नों में एक बेतालभट्ट थे। ये दोनों भिन्न प्रतीत होते हैं। ऐसा लगता है एक अग्नि नामक बेताल और दूसरा बेतालभट्ट।

मत्स्यादि पुराणों में हैहय आवन्त्य जयध्वज का पुत्र तालजंघ था। उसके सभी सौ पुत्र तालजंघ कहलाये। इन हैहयों के पाँच कुल हो गये थे वीतिहोत्र, भोज, आवन्त, तुण्डिकेर और तालजंघ। तालजंघ बेताल होने से उसके वंशज भी बेताल कहलाते होंगे।

जहाँ तक बेतालभट्ट की रचनाओं का प्रश्न है यह माना जाता है कि बेतालभट्ट एक विद्वान कवि भी थे जिन्होंने 16 श्लोकों का नीतिप्रदीप नामक काव्य प्रकाशित किया। सातवीं शताब्दी के 'स्वयंभूछन्दस' में बेतालकवि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। सुन्दरी या वियोगिनी छन्द का नाम बैतालीय छन्द भी बताया जाता है।

यह भी माना जाता है कि बेतालपंचविंशतिका के मूल रचनाकार भी बेतालभट्ट हैं। जिसे कालान्तर में भिन्न-भिन्न लेखकों ने पुनर्रचित किया। यह क्रम कई सौ वर्षों तक चलता रहा। क्षेमेन्द्र की 'वृहतकथामञ्जरी' सोमदेव की 'कथासरित्सागर' तथा राजा जय सिंह के निर्देश पर सूरतकवि द्वारा रचित साहित्य इसमें पुराण, सिंहासनवित्रिशिंका तथा अन्य प्रचलित कथाओं का मिश्रण है। उसके प्रारंभिक भाग में विक्रमादित्य के माता-पिता, परिवार आदि का विस्तृत उल्लेख हैं। इसी प्रकार की कथा जम्भलदत्त की बेतालपंचविंशतिका में भी दी गई है।

इस प्रकार विक्रमादित्य के नवरत्न बेतालभट्ट द्वारा रचित बेतालपंचविंशतिका निरन्तर विकसित होती जाती है और कथासरित्सागर के विक्रम केसरी और बेताल की कथा क्रमशः विकासोन्मुखी होती गई। लोकभाषा में इसे बेताल पच्‍चीसी कहते हैं। विक्रम-बेताल की कथा सिंहासन द्वित्रिशतिका में भी मिलती है। इसे लोकभाषा में 'सिंहासनबत्तीसी' कहते हैं। कुछ लोग इसे विक्रमचरित्र भी कहते हैं। संस्कृत में इसके विभिन्न पाँच पाठ प्राप्त होते हैं जिनमें परस्पर भेद भी हैं। गुजराती, मराठी आदि विभिन्न भाषायों में उसके रूपान्तर हुए हैं। जैन परंपरा में भी इस कथा को पूर्ण रूप से अपना लिया।