क्षपणक
क्षपणक विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। क्षपणक प्राचीनकाल में जैन साधु को कहते थे। क्षपणक से समान नामाराशि महाक्षपणक एक सुविश्रुत व्यक्ति थे जिन्होंने "अनेकार्थध्वनिमञजरी' नाम के प्राचीन कोष की रचना की थी। शंकर दिग्विजय में उज्जयिनी में शंकर का शास्त्रार्थ किसी क्षपणक से होना लिखा है।
जैन पंडितों में एक सिद्धसेन दिवाकर है जो कि विक्रमादित्य कालीन है साथ ही उनकी एवं विक्रमादित्य की कुछ कथाएँ भी मिलती हैं।
जैन ग्रन्थों में लिखा है कि सिद्धसेन दिवाकर का विक्रमादित्य पर विशेष प्रभाव था और उन्होंने सर्वप्रथम जैन आगमों को संस्कृत में लिखने का प्रयास किया था जो कि अभी तक अर्धभागधी प्राकृत में लिखे जाते थे।
दूसरे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि संभवतः सिद्धसेन दिवाकर नामक यह जैन साधु (क्षपणक) जब उज्जयिनी आये तो विक्रमादित्य को प्रभावित करने में सफल रहे। संभवतः उससे प्रभावित होकर विक्रमादित्य ने उन्हें अपने नवरत्नों में सम्मिलित किया और चूँकि वह एक जैन साधु अर्थात् क्षपणक था। अतः उसे मूलनाम के बजाय इसी नाम से नवरत्न अधिष्ठित किया। इसी कारण कभी इसे क्षपणक (साधू) तो कभी महाक्षपणक (महान साधु) भी कहा गया। संस्कृत के प्रति प्रेम आगे चलकर अनेकार्थ ध्वनिमञजरी जैसे ग्रन्थ में द्रष्टव्य हुआ।
इसी प्रकार ज्योर्तिविदाभरण के एक दूसरे श्लोक में विक्रमकालीन वैज्ञानिकों के नाम लिखे हैं जिनमें सत्यश्रुतसेन, बादरायण, मणित्थ और कुमारसिंह के नाम आते हैं। टीकाकारों ने सिद्धसेन दिवाकर का दूसरा नाम श्रुतसेन बतलाया है। पं. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने सिद्धसेन दिवाकर को ही विक्रम नवरत्नों में से क्षपणक होना सिद्ध किया है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय नैय्यायिक के अनुसार महावीर भगवान के निर्वाण के 470 वर्ष व्यतीत होने पर सम्राट विक्रमादित्य को जैन धर्म की दीक्षा दी गई थी जिसके अनुसार विक्रम संवत् प्रथम होता है। यह सम्राट विक्रमादित्य के गुरू और समकालीन भी माने जाते हैं। ये साहित्यकार, काव्यकार, नैय्यायिक, तर्कशास्त्रज्ञ, ज्योतिषाचार्य एवं वैज्ञानिक थे।
ऐसे भी विवरण मिलते हैं कि जैन संप्रदाय के दोनों संप्रदाय श्वेताम्बर एवं दिगम्बर उनके प्रति आदर भाव रखते थे। जैन साधु के रूप में उन्होंने दो स्रोत लिखे हैं। एक तो पार्श्वनाथ की स्तुति जिसमें 44 श्लोक हैं इसका नाम है 'कल्याण मन्दिर स्रोत'। किंवदन्ती है कि यह वही स्रोत है जिसके कारण शिवलिंग फटा था। दूसरा 'वर्धमान-द्वात्रिंशिका' स्रोत है। यह 32 श्लोकों का वर्धमान महावीर का स्तुति है। इन दोनों स्रोतों में सिद्धसेन की काव्यकला एक ऊँची श्रेणी की पाई जाती है।
"गणरत्नमहोदधि" नामक ग्रन्थ में उसके रचनाकार वर्धमान ने भी एक श्लोक में क्षपणक का उल्लेख किया है।
सिद्धसेन ने 32 श्लोकों का एक संग्रह लिखा था। इन्होंने जैन तर्कशास्त्र में एक नया अध्याय जोड़ा एवं न्यायव्रत नामक ग्रन्थ लिखा। एक अन्य जैन तर्कग्रन्थ भी इन्होंने लिखा था जिसका नाम था सन्मति तर्क यह प्राकृत ग्रन्थ था जिसमें जैन धर्म के न्याय एवं तर्क से सम्बन्धित कई तथ्य थे।
अनेकार्थध्वनिमञ्जरी उनका एक प्राचीन शब्द कोश था। यह उनका एक महान ग्रन्थ था।