मय विश्‍वकर्मा

 

          रामायण के उत्तरकांड के अनुसार मयासुर, कश्यप ऋषि और उनकी पत्नी दिति के पुत्र और असुर सम्राट रावण की पत्नी मंदोदरी के पिता थे। मय विश्वकर्मा (मय दानव) को मयासुर भी कहते हैं। यह बहुत ही शक्तिशाली और मायावी शक्तियों से संपन्न थे। मत्स्यपुराण में अठारह वास्तुशिल्पियों के नाम दिये गये हैं, जिनमें देवशिल्पी विश्वकर्मा और मय दानव का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। विश्‍वकर्मा देवताओं के तो मय दानव असुरों के वास्तुकार थे। मय विश्‍वकर्मा हर तरह की रचना करना जानते थे। मय विषयों के परम गुरु हैं। कहते हैं कि उस काल की आधी दुनिया को मय ने ही निर्मित किया था। ऐसा माना जाता है कि वह इतने प्रभावी और चामत्कारिक वास्तुकार थे कि अपने निर्माण के लिए वह पत्थर तक को पिघला सकते थे ।

          मयासुर ने दैत्यराज वृषपर्वन् के यज्ञ के अवसर पर बिंदुसरोवर के निकट एक विलक्षण सभागृह का निर्माण कर प्रसिद्धि हासिल की थी। रामायण के उत्तरकांड के अनुसार रावण की खूबसूरत नगरी, लंका का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था लेकिन यह भी मान्यता है कि लंका की रचना स्वयं रावण के ससुर और बेहतरीन वास्तुकार मयासुर ने ही की थी। महाभारत में उल्लेख है कि मय विश्‍वकर्मा ने पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ नामक नगर की रचना भी की थी। यह भी कहा जाता है कि उन्‍होंने द्वारिका के निर्माण में भी देवशिल्पी विश्‍वकर्मा का सहयोग किया था। मायासुर ने ही त्रिपुर नामक तीन नगरों का निर्माण किया था, जो आकाश में बादलों की तरह उड़ते-घूमते थे। उनमें एक स्‍वर्ण का, दूसरा चाँदी का तथा तीसरा लौहे का बना था। मयासुर एक खगोलविद् भी थे। कहते हैं कि सूर्य सिद्धांतम की रचना मयासुर ने ही की थी। खगोलीय ज्योतिष से जुड़ी भविष्यवाणी करने के लिए ये सिद्धांत बहुत सहायक सिद्ध होता है। मय विश्‍वकर्मा के पास एक विमान रथ था। इस विमान का उपयोग उन्‍होंने देव-दानवों के युद्ध में किया था। देव- दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है, जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। मयासुर ने श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन कर एक अद्वितीय भवन का निर्माण किया। इसके साथ ही उन्‍होंने पाण्डवों को 'देवदत्त शंख', एक वज्र से भी कठोर रत्न से जड़ित गदा तथा मणिमय पात्र भी भेंट किया। एक बार दुर्योधन ने मय द्वारा निर्मित राजसभा को देखने की इच्छा प्रदर्शित की, जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार किया। दुर्योधन उस सभा भवन की शिल्पकला को देख कर आश्चर्यचकित रह गये। मय ने उस सभा भवन का निर्माण इस प्रकार से किया था कि वहाँ पर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो जाते थे- जैसे कि स्थल के स्थान पर जल, जल के स्थान पर स्थल, द्वार के स्थान पर दीवार तथा दीवार के स्थान पर द्वार दृष्टिगत होता था। दुर्योधन को भी उस भवन के अनेक स्थानों में भ्रम हुआ तथा उपहास का पात्र बनना पड़ा था।