आचार्य व्याडि

 

          राजा विक्रमादित्य के समय उज्जैन नगर में आचार्य व्याडि का भी निवास था। रसायन विद्या में सोना बनाने के प्रति उनका विशेष रुझान था। वे रसायन विद्या की खोज पड़ताल में इतने डूब गये कि उन्‍होंने अपनी सारी संपत्ति नष्ट कर डाली। अपना सब कुछ गँवा देने के बाद उन्‍हें इस विद्या से घोर घृणा हो गयी। एक दिन वे शोकमग्न नदी के किनारे बैठे थे उनके हाथ में औषधि ज्ञान का एक ग्रन्थ था जिसका उपयोग वह अपने शोध कार्य के लिए करते थे। निराश होकर वह उस ग्रन्थ के पृष्ठों को फाड़कर नदी के जल में फेंकने लगे। उसी नदी के किनारे व्याडि से कुछ दूरी पर प्रवाह की दिशा में एक महिला बैठी थी उसने इन पृष्ठों को बहता देखकर उनमें से कुछ को जल से बाहर निकाल लिया। व्याडि जब ग्रन्थ के सारे पृष्ठ फाड़कर नदी में फेंक चुके थे, तब वह औरत उनके पास आयी और पृष्ठ फाड़ने का कारण पूछा? व्याडि ने उत्तर दिया कि “क्योंकि मुझे इस से लाभ नहीं हुआ। मुझे वह नहीं मिला जो मुझे मिलना चाहिए था। मेरे पास प्रचुर धन था पर इस विद्या के कारण मैं उसको गँवा चुका हूँ। सुख प्राप्ति की आशा में कठिन परिश्रम और खोज के बाद अंततः मुझे दुःख और निराशा ही मिली। इसलिए मुझे इस विद्या से ही घृणा हो गयी है।" यह सुनकर वह औरत बोली, “उसको मत छोड़ो, जिसमें आपने अपना जीवन लगा दिया है। जो सत्य है, उस पर आपको संदेह नहीं करना चाहिए। ऋषियों का ज्ञान मिथ्या नहीं हो सकता। तुम्हारी कामना में जो बाधा है वह संभवत: किसी सूत्र विशेष को ढंग से ना समझ पाने के कारण है? मेरे पास धन है, जिसका मेरे पास कोई उपयोग नहीं है आप धन ले लें और पुनः प्रयास करें सफलता अवश्य मिलेगी।”

          वास्‍तव में उनसे औषधि शास्त्र का अध्ययन करते हुए एक शब्द को समझने में भूल हो गयी थी। उस शब्द का अर्थ यह था कि तेल और नर रक्त दोनों की इसके लिए आवश्यकता है। वहाँ रक्तमाल लिखा था जिसका अर्थ उन्‍होंने लाल अमलक समझा। अब वे विविध प्रयोग करने लगे मगर उसका कोई असर ना हुआ। किसी कार्य में एक दिन उनका सिर (खोपड़ी) जल गया। इसके बाद वे अपने सिर में तेल चुपड़कर रखने लगे। एक दिन वे भट्टी पर, एक औषधि को तेल में मिलाकर गर्म कर रहे थे, तभी उनका सिर (खोपड़ी) किसी नुकीली चीज से टकरा गया और सिर से रक्त बहने लगा। उनके सिर से बहती हुई रक्त की कुछ बूँदे गर्म तेल में जा गिरी। व्याडि तेल में गिरते हुए रक्त को नहीं देख पाये। कुछ देर बाद उन्‍होंने उसी रक्त को अपने शरीर पर मल लिया, तेल के मलते ही वे हवा में उड़ने लगे। सम्राट विक्रमादित्य को इस घटना का पता लगा तो वह व्याडि को उड़ता हुआ देखने के लिए महल से बाहर निकल आये। व्याडि ने विक्रम से कहा तुम अपना मुँह खोलो ताकि मैं उसमें थूँक सकूँ, यह सुन विक्रम ने अपना मुँह नहीं खोला और वहाँ से दूर हट गये। व्याडि का थूँक उनके महल की देहरी पर जा गिरा। इसके गिरते ही वह देहरी सोने की बन गयी। इस पूरे प्रसंग का उल्लेख विदेशी यात्री अलबरूनी ने अपनी पुस्तक में किया है।