देवर्षि नारद

 

             महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारद जी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, २५,००० श्लोकों का वह महाग्रन्थ ही नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण २२,००० श्लोकों वाला है। ३,००० श्लोकों की न्यूनता प्राचीन पाण्डुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण हुई है। नारदपुराण में लगभग ७५० श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। इनमें ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वांगीण विवेचना की गई है।

वेदों के सभी प्रमुख छ: अंगों का वर्णन नारद पुराण में किया गया है.  नारद पुराण में घर के वास्तु संबन्धी नियम दिए गये है. दिशाओं में वर्ग और वर्गेश का विस्तृ्त उल्लेख किया गया है. घर के धन ऋण, आय नक्षत्र, और वार और अंश साधन का ज्ञान दिया गया है.

नारद पुराण एक धार्मिक ग्रन्थ होने के साथ-साथ एक ज्योतिष ग्रन्थ है. यह माना जाता है, कि इस पुराण की रचना स्वयं ऋषि नारद के मुख से हुई है। यह पुराण दो भागों में बंटा हुआ है, इसके पहले भाग में चार अध्याय है, जिसमें की विषयों का वर्णण किया गया है. शुकदेव का जन्म, मंत्रोच्चार की शिक्षा, पूजा में कर्मकाण्ड विधियां व अनुष्ठानों की विधि दी गई है। दूसरे भाग में विशेष रुप से कथाएं दी गई है. अठारह पुराणों की सूची इस पुराण में दी गई है। "नारदसंहिता" के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रन्थ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। ज्योतिष शास्त्र के उपलब्ध ग्रंथों में नारद संहिता का अप्रतिम स्थान है। वराहमिहिर ने अपने पूर्ववर्ती सहिंताचार्यों में महर्षि नारद का भी उल्लेख किया था।  वराहमिहिर के पूर्व सहितांचार्यों में एकमात्र नारद की ही संहिता ऐसी है जिसमें अधिकांश विषयों का समावेश है। नारद संहिता के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल से ही ज्योतिष संहिता के अंतर्गत कितने विषयों का समावेश होता था। अथर्ववेद में लिखा है कि नारद नाम के एक ऋषि हुए हैं। वहीं ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ का कथन है कि हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के शिक्षक तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले भी नारद थे। ठीक इसी तरह मैत्रायणी संहिता में लिखा है नारद नाम के एक आचार्य हुए हैं। सामविधान ब्राह्मण ग्रंथ में बृहस्पति के शिष्य के रूप में नारद जी का वर्णन मिलता है।