कण्व
प्राचीन भारत में कण्व नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध महर्षि कण्व थे। ऋग्वेद के अलावा शुक्ल यजुर्वेद की 'माध्यन्दिन' तथा 'काण्व', इन दो शाखाओं में से द्वितीय काण्वसंहिता के वक्ता ऋषि कण्व ही रहे हैं। ऋग्वेद में इन्हें अतिथि-प्रिय कहा गया है। माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। महर्षि कण्व ने एक स्मृति की भी रचना की है, जो कण्वस्मृति के नाम से विख्यात है। ऋग्वेद का अष्टम मण्डल कण्ववंशीय ऋषियों की देवस्तुति में उपनिबद्ध है। अष्टम मण्डल में ग्यारह सूक्त ऐसे हैं, जो बालखिल्य सूक्त के नाम से विख्यात हैं। सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। एक सौ तीन सूक्त वाले ऋग्वेद के आठवें मण्डल के अधिकांश मन्त्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों तथा गोत्रजों द्वारा दृष्ट हैं। कुछ सूक्तों के अन्य भी द्रष्ट ऋषि हैं, किंतु ‘प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति’ के अनुसार महर्षि कण्व अष्टम मण्डल के द्रष्टा ऋषि कहे गए हैं। इनमें लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण सम्बन्धी उपयोगी मन्त्र हैं। एक मंत्रकार ऋषि जिनके बहुत से मंत्र ऋग्वेद में है। ऋग्वेद के साथ ही शुक्ल यजुर्वेद की 'माध्यन्दिन' तथा 'काण्व', इन दो शाखाओं में से द्वितीय 'काण्वसंहिता' के वक्ता भी महर्षि कण्व ही हैं। उन्हीं के नाम से इस संहिता का नाम 'काण्वसंहिता' हो गया। महर्षि कण्व के कण्वनीति, कण्वसंहिता, कण्वोपनिषद, कण्व स्मृति आदि ग्रंथों का उल्लेख मिलता है।
देवस्तुतियों के साथ ही अष्टम मण्डल में ऋषि द्वारा दृष्टमन्त्रों में लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण सम्बन्धी उपयोगी मन्त्र भी प्राप्त होते हैं। सूक्त की महिमा के अनेक मन्त्र इसमें आये हैं। गौ की सुन्दर स्तुति है, जो अत्यन्त प्रसिद्ध है। ऋषि गो-प्रार्थना में उसकी महिमा के विषय में कहते हैं- "गौ रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, अदिति पुत्रों की बहिन और घृतरूप अमृत का ख़ज़ाना है, प्रत्येक विचारशील पुरुष को कण्व ने यही समझाकर कहा है कि निरपराध एवं अवध्य गौ का वध न करो। महाकवि कालिदास ने अपने 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में महर्षि के तपोवन, उनके आश्रम-प्रदेश तथा उनका, जो धर्माचारपरायण उज्ज्वल एवं उदात्त चरित प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। कण्व ऋषि के आश्रम में ही हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण किया गया था। भारतीय सभ्यता- संस्कृति और ज्ञान- विद्या के क्षेत्र में किये गए महती योगदान को स्मरण कर उनके उत्तम ज्ञान, तपस्या, मन्त्र ज्ञान, अध्यात्म शक्ति की प्रशंसा में उन्हें आकाश के तारामंडल में स्थित सप्तर्षियों में शामिल कर लिया गया। सामान्यत: वेद के मन्त्रदृष्टा ऋषि कहलाते थे। वेद, ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता,परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला, जिनमें ज्ञान के द्वारा मंत्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखने की शक्ति होती थी, उन्हें ऋषि माना जाता था।
आदिपर्व में वर्णित है कि कण्व ऋषि के आश्रम में अनेक नैयायिक रहा करते थे, जो न्यायतत्त्वों के कार्यकारणभाव, कथासम्बन्धी स्थापना, आक्षेप और सिद्धान्त आदि के ज्ञाता थे। भारतीय सभ्यता- संस्कृति, विद्या- ज्ञान के विकास में कण्व की भूमिका स्मृत, हृदय से प्रशंसित व पूजित है। वेदों में जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है, वे वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक के नाम से हैं। इन्हीं सातों ऋषियों से तारामंडल के सात तारों को जोड़ा जाता है। माना जाता है कि यह ऋषि या इन्हीं के वंशज भी आगे सप्तर्षि तारा मण्डल का हिस्सा बने।