भृर्तहरि
भर्तृहरि का नाम संस्कृत साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है। इनके द्वारा विरचित तीनों शतक - नीतिशतक, शृंगारशतक तथा वैराग्यशतक लोकप्रिय हैं। भर्तृहरि के शतकों की लोकप्रियता किसी क्षेत्र विशेष तक ही सीमित नहीं रही है परन्तु सारे भारत में इनकी लोकप्रियता निर्विवाद है। भर्तृहरि के शतक जहाँ भारतीय जनमानस में अपना स्थान बनाने में सफल हुए हैं वहीं उनकी ख्याति विदेशों में भी हुई है। नीतिशतक का अनुवाद अनेक भाषाओं में प्राप्त होता है। विदेशी विद्वान् भर्तृहरि की मौलिक अनुभूति एवं सरल अभिव्यक्ति से विशेष प्रभावित हुए हैं। भारतीय परिवेश में भी भर्तृहरि की लोकप्रियता का मूल आधार उनकी सरल अभिव्यक्ति एवं भावप्रवणता ही है। संस्कृत साहित्य से परिचित शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे भर्तृहरि के कुछ श्लोक कण्ठस्थ न हों।
भृर्तहरि एक सुविख्यात संस्कृत व्याकरणकार भी हैं जो पतंजलि के 'व्याकरणमहाभाष्य' का सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक टीकाकार माने जाता हैं। महाभाष्य पर लिखी हुई इसकी टीका का नाम 'महाभाष्यप्रदीप' है। पुण्यराज के अनुसार भर्तृहरि के गुरु का नाम वसुरात था। चिनी प्रवासी इत्सिंग के अनुसार यह बौद्धधर्मीय था, एवं इसने सात बार प्रवज्या ग्रहण की थी किंतु मीमांसा के अनुसार वे वैदिकधर्मीय ही थे।
संस्कृत भाषा में अंतर्गत शब्दों का संपूर्ण विवेचन पाणिनि एवं पतंजलि ने अपने व्याकरण ग्रंथों के द्वारा किया। किंतु उन्ही शब्दों को ब्रह्मस्वरूप मान कर, तत्वज्ञान की दृष्टि से व्याकरणशास्त्र का अध्ययन करने का महनीय कार्य भर्तृहरि ने अपने 'वाक्यपदीय' नामक ग्रंथ के द्वारा किया। इस ग्रंथ के निम्नलिखित तीन कांड है: – ब्रह्मकांड, वाक्यकांड, प्रकीर्णकांड|
मीमांसा, सांख्य, योग आदि दर्शनों का निर्माण होने पश्चात् व्याकरणशास्त्र एक अनुपयुक्त शास्त्र कहलाने लगे। किंतु शब्दों के अर्थ का ज्ञान प्राप्त होने पर, शब्दब्रह्म की प्राप्ति होती हैं, ऐसा नया सिद्धान्त भर्तृहरि ने प्रस्थापित किया एवं इस प्रकार व्याकरणशास्त्र का पुनरुत्थान किया।
व्याडि का संग्रह ग्रंथ नष्ट होने पर, पाणिनीय व्याकरणशास्त्र विनष्ट होने का संकट निर्माण हुआ; उसी संकट से व्याकरणशास्त्र को बचाने के लिये 'वाक्यपदीय' ग्रंथ की रचना की गयी है, ऐसा निर्देश उस ग्रंथ के द्वितीय कांड में प्राप्त है। उनके महाभाष्यदीपिका, वाक्यपदीय, वाक्यपदीय के पहले दो कांडो पर स्वोपज्ञटीका, वेदान्तसूत्रवृत्ति, मीमांसासूत्रवृत्ति ग्रंथ बहुख्यात हैं।