गार्गी

वैदिक युगीन स्त्रियाँ अपनी अनुकरणीय बुद्धि और सर्वोच्च आध्यात्मिक गुणों के लिए प्रसिद्ध थीं। विदुषी गार्गी उनमें अग्रणीय थी। वह उस समय की असाधारण स्त्रियों में से एक थीं जो प्रसिद्ध विदुषी के साथ-साथ प्रवर्तिका भी थीं। ऋषि वचक्नु की यही पुत्री वैदिक साहित्य में महान प्राकृतिक दार्शनिक, वेदों के प्रसिद्ध व्याख्याता और ब्रह्मा विद्या के ज्ञान के साथ ब्रह्मवादिनी के नाम से जानी जाती हैं। वैदिक युग में स्त्रियाँ यज्ञोपवीत धारण कर वेदाध्ययन एवं प्रात: व सायंकाल होम आदि कर्म करती थी। शतपथ ब्राह्मण में व्रतोपनयन का उल्लेख है। हरित संहिता के अनुसार वैदिक काल में शिक्षा ग्रहण करने वाली दो प्रकार की कन्याएँ होती थी– ब्रह्मवादिनी एवं सद्योदबाह। ब्रह्मावादिनी जीवन भर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर अविवाहिता रहतीं थीं और धर्मशास्त्रों के अध्ययन में ही अपना अधिकतर समय व्यतीत करती थीं और सद्योदबाह पंद्रह या सोलह वर्ष की उम्र तक, जब तक उनका विवाह नहीं हो जाता था, तब तक अध्ययन करती थी। इन्हें प्रार्थना एवं यज्ञों के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र पढ़ाए जाते थे तथा संगीत एवं नृत्य की भी शिक्षा दी जाती थी। युवा अवस्था से ही गार्गी की वैदिक ग्रंथों में गहरी रूचि थी। एक बार विदेह के राजा जनक ने एक 'ब्रह्मयज्ञ' का आयोजन किया।
जनक ने शास्त्रार्थ विजेता के लिए सोने की मोहरे जड़ति 1000 गायों को दान में देने की घोषणा की। जब ऋषि याज्ञवल्क्य ने अति आत्मविश्वास के साथ अपने शिष्यों से कहा कि इन गायों को हमारे आश्रम की और हांक कर ले चलो। इतना सुनते ही सब ऋषि याज्ञवल्क्य से प्रश्न करने लगे। याज्ञवल्क्य ने सबके प्रश्नों का उत्तर दिया। उसी सभा में वेदज्ञ स्त्री गार्गी भी उपस्थित थीं। उन्होंने याज्ञवल्क्य से प्रश्न करना शुरू किया। गार्गी ने पूछा हे ऋषिवर जल के बारे में कहा जाता है कि हर पदार्थ इसमें घुलमिल जाता है तो यह जल किसमें जाकर मिल जाता है। याज्ञवल्क्य ने इस प्रश्न का उत्तर दिया इसके बाद वह बाकी प्रश्न करने लगीं। उसने ऋषि याज्ञवल्क्य को आत्मा या 'आत्मान' पर परेशान करने वाले सवालों की एक श्रृंखला के साथ चुनौती दी, जिसने उस विद्वान व्यक्ति को भ्रमित कर दिया, जिसने तब तक कई प्रतिष्ठित विद्वानों को चुप करा दिया था। उसका प्रश्न- "आकाश के ऊपर और पृथ्वी के नीचे जो परत है, जिसे पृथ्वी और आकाश के बीच स्थित होने के रूप में वर्णित किया गया है और जो भूत, वर्तमान और भविष्य के प्रतीक के रूप में इंगित किया गया है, वह कहाँ स्थित है?" बड़े-बड़े वैदिक ज्ञाताओं को भी झकझोर दिया। इस पर याज्ञवल्क्य गार्गी पर क्रोधित हो गए। इसके बाद गार्गी प्रश्न पूछती गईं। परम आत्मज्ञानी के तौर प्रतिष्ठित याज्ञवल्क्य ने झल्लाकर आखिर कह ही दिया- ’गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्’। यानी गार्गी, इतने सवाल मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा मस्तिष्क ही फट जाए। याज्ञवल्क्य की इस कटु और अपमानजनक बात शास्त्रार्थ के नियमों के सर्वथा प्रतिकूल थी। लेकिन गार्गी ने वह प्रश्न छोड़ दिया। मगर ऐसा भी नहीं कि ज्ञानी होने के पुरूष-दंभ के सामने वह विदुषी परास्त हो गयी, बल्कि उसने तो किसी साधुमना महानता का परिचय दिया और पूरे सम्मान के साथ उस विषय को टालकर दूसरे विषय पर बात शुरू कर दी।
याज्ञवल्क्य विजेता थे- गायों का धन अब उनका था। लेकिन गार्गी के प्रति अपने बर्ताव के चलते याज्ञवल्क्य अंदर तक हिल गये और राजा जनक से कहा- “राजन! अब इस धन से मेरा मोह नष्ट हो गया है। विनती है कि धन ब्रह्म का है और ब्रह्म के उपयोग में प्रयुक्त हो।” यानी याज्ञवल्क्य जीत कर भी हार गये और विशिष्टतम दार्शनिक और युगप्रवर्तक गार्गी हार कर भी जीती और अमर हो गयी। उपनिषदों में भी गार्गी का उल्लेख किया गया है, उसमें उन्हें एक महान दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। गार्गी वेदज्ञ और ब्रह्माज्ञानी थीं वो सभी प्रश्नों के जवाब जानती थीं। गार्गी के प्रश्नों के कारण ‘बृहदारण्यक उपनिषद्’ की ऋचाओं का निर्माण हुआ। यह उपनिषद् वेदों का एक हिस्सा है।