नागार्जुन

 

             भारतीय रसायन के इतिहास में नागार्जुन (आठवीं शती) का नाम परम उल्लेखनीय है। यूँ तो वैदिक काल में चिकित्सा और उद्योगों के साथ-साथ रसायन के कुछ मूल तत्वों की कल्पना आरंभ हो गयी थी। पर तत्र युग में पारद और गंधक के साथ-साथ महारसों,उपरसों और अन्य साधारण रसों एवं धातुओं के योग से रसायन के इस क्षेत्र में नया कार्य आरंभ हुआ। रसायन के नये प्रयोगों में अनेक आचार्यों ने बेहद चामत्कारिक पूर्ण कार्य किया। इन सब में रसायनशास्त्री नागार्जुन का स्थान नि:संदेह सबसे ऊपर है। भारत में रसायन विज्ञान की भी बहुत पुरानी परंपरा है। प्राचीन तथा मध्य काल में संस्कृत भाषा में लिखित रसायन विज्ञान के 44 ग्रन्थ उपलब्ध हैं। नागार्जुन ने रसायन विज्ञान पर रसरत्नाकर नामक ग्रंथ लिखा है। नागार्जुन ने सुश्रुत संहिता के पूरक के रूप में उत्तर तन्त्र नामक ग्रन्थ भी लिखा। नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया। रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें रसरत्नाकर और रसेन्द्र मंगल बहुत प्रसिद्ध हैं। रसायनशास्त्री व धातुकर्मी होने के साथ-साथ इन्होंने अपनी चिकित्सकीय सूझ-बूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार और योगाष्टक हैं। नागार्जुन रसायनज्ञ अर्थात कीमियागर थे। लोग उनके बारे में ढ़ेर सारी कहानियाँ कहते थे। उससे उन्हें कभी व्याकुलता या परेशानी नहीं हुई थी। इस लोक-विश्वास को कि वह भगवान के संदेशवाहक हैं, रसरत्नाकर नामक पुस्तक लिख कर पुष्ट कर दिया। यह पुस्तक उनके और देवताओं के बीच बातचीत की शैली में लिखी गई थी। इस ग्रन्थ में पारे के यौगिक बनाने के प्रयोग दिये गये हैं। चाँदी, सोना, टिन और ताँबे के अयस्क भूगर्भ से निकालने और उन्हें शुद्ध करने की विधियों का विवरण भी दिया गया है। नागार्जुन पारे से संजीवनी बनाने के लिए पशुओं और वनस्पति के तत्‍वों तथा अम्ल और खनिजों का उपयोग करते थे। वनस्पति निर्मित तेजाबों में वे हीरे, धातु और मोती गला लेते थे। नागार्जुन ने रसायन विज्ञान में काम आने वाले उपकरणों का विवरण भी दिया है। इस ग्रंथ में आसवन, द्रवण, उर्ध्वपातन और भूनने का भी वर्णन है। रसायन का शाब्दिक अर्थ सत्व का पथ, अल्केमी (रसायन विद्या) के लिए दक्षिण एशियाई ग्रंथों में प्रयुक्त महत्वपूर्ण संस्कृत शब्द है। यह शब्द 10वीं शती ईस्वी तक मिलता है और नागार्जुन को इस शास्त्र का पर्याय माना जाता है।