महर्षि सांदीपनि
महर्षि सांदीपनि अवन्ति के कश्यप गोत्र में जन्मे ब्राह्मण थे। सांदीपनि वेद, धनुर्वेद, शास्त्रों, कलाओं और आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान माने जाते थे। ‘सांदीपनि‘ परम तेजस्वी और सिद्ध ऋषियों में से एक थे। ऋषि सांदीपनि मात्र एक ऋषि ही नहीं बल्कि एक दिव्य पुरुष भी थे। मध्ययुगीन इतिहास में पाये गये तक्षशिला और नालंदा विश्व प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्रों की तरह ही द्वापर युग में भी वेद और विज्ञान की शिक्षा के क्षेत्र में उज्जैन एक महत्वपूर्ण केंद्र था।
उज्जैन देवों के देव महादेव की नगरी, महाकाल की नगरी, कृष्ण के गुरुकुल की नगरी, आचार्य गुरु महर्षि सांदीपनि की नगरी, तपस्वीयों की नगरी, वीरों के वीर विक्रमादित्य की नगरी, धर्म, ज्ञान विज्ञान, कला, संस्कृति और साहित्य की नगरी। पौराणिक काल से लेकर वर्तमान तक यह नगर सभी को चमत्कृत करता रहा है। उज्जैन के असंख्य रूप और उसकी गाथाएँ, इसका इतिहास और वर्तमान अपने में बहुत ही समृद्ध और शक्तिशाली है। महर्षि सांदीपनि जैसे गुरुओं के कारण यहाँ की धरा और पवित्र हुई। विभिन्न वेदों और शास्त्रों में इस बात का जिक्र है कि उस समय महर्षि सांदीपनि का आश्रम वेद और विज्ञान की शिक्षा के क्षेत्र में इतना प्रसिद्ध था कि दुनियाभर के छात्र इसमें शिक्षा लेने के लिए आया करते थे और इसमें उस समय छात्रों की संख्या भी लगभग दस हजार से ज्यादा हुआ करती थी। सांदीपनि वेद-वेदांतों और उपनिषद, चौंसठ कलाओं के साथ ही न्याय शास्त्र, राजनीति शास्त्र, धर्म शास्त्र, नीति शास्त्र, अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा भी प्रदान करते थे। धर्म, आध्यात्म और मोक्ष की नगरी उज्जयिनी में स्थित सांदीपनि आश्रम की प्रसिद्धि और पौराणिकता का महत्व इसलिए भी है क्योंकि श्रीकृष्ण, बलराम और उनके मित्र सुदामा ने यहाँ इसी आश्रम में महर्षि सांदीपनि से वेदों और शास्त्रों का ज्ञान लिया था। इसीलिए आज भी सांदीपनि आश्रम को श्रीकृष्ण की विद्यास्थली के नाम से जाना जाता है। पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार श्रीकृष्ण आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व द्वापर युग में उज्जयिनी में स्थित महर्षि सांदीपनी के इसी आश्रम में अपनी शिक्षा पूर्ण की थीं। गुरु सांदीपनि श्रीकृष्ण की लगन, मेहनत और सेवाभाव से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्हें जगत गुरु की उपाधि दे दी। तभी से श्रीकृष्ण पहले जगत गुरु माने गए। शास्त्रों में गुरु का स्थान सर्वोच्च बताया गया है। देवी-देवताओं के अवतारों ने भी गुरु से ही ज्ञान प्राप्त किया। रामायण और महाभारत में कई गुरु बताए गए हैं। श्रीराम ने वशिष्ठ और विश्वामित्र से ज्ञान प्राप्त किया था। श्रीकृष्ण ने सांदीपनि से। सांदीपनि आश्रम का विस्तारपूर्वक उल्लेख हमें महाभारत, श्रीमद्भागवत, ब्रम्ह्पुराण, अग्निपुराण तथा ब्रम्हवैवर्तपुराण में मिलता है।
कालांतर में लगध जैसे गणितचार्य ने भी महर्षि सांदीपनि द्वारा स्थापित इसी गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण की थी। सांदीपनी ऋषि स्वयं श्री कृष्ण की प्रतिभा से चकित थे। बहुत ही कम समय में उन्होंने ना केवल सारी विद्याओं में दक्षताएँ प्राप्त कीं, बल्कि अन्य छात्रों तथा गुरुमाता की भी समय समय पर सहायता की।
दीक्षा के उपरांत कृष्ण ने गुरुमाता को गुरु दक्षिणा देने की बात कही। इस पर गुरुमाता ने कृष्ण को अद्वितीय मानकर गुरु दक्षिणा में उनका पुत्र वापस माँगा, जो प्रभास क्षेत्र में जल में डूबकर मर गया था। गुरुमाता की आज्ञा का पालन करते हुए कृष्ण ने समुद्र में मौजूद शंखचूर्ण नामक एक राक्षस का पेट चीरकर एक शंख निकाला, जिसे "पांचजन्य" कहा जाता था। इसके बाद वे यमराज के पास गए और संदीपन ऋषि का पुत्र वापस लाकर गुरुमाता को सौंप दिया। पौराणिक काल से वर्तमान तक भारतीय ज्ञान तथा शिक्षा को धारण में गुरुकुल की अवधारणा सबसे प्रमुख रही है। अवंती (उज्जैन) ने इसी परंपरा को गुरु महर्षि सांदीपनि के माध्यम से सर्वोच्च स्थान को हासिल किया है।